जम्मू कश्मीर में चुनावों की तासीर इस बार गर्मजोशी से भरी रही। एक तो इसके पीछे लोकल चुनावी माहौल का 10 साल के बाद बन पाना वजह है तो दूसरी वजह वो नए चेहरे हैं जिन्हें विधानसभा की गैर मौजूदगी में पिछले कुछ वर्षों से जमीनी स्तर पर काम करने का मौका मिला।
जम्मू कश्मीर में विधायिका पर ये आरोप हमेशा लगते रहे कि विधायकों, मंत्रियों ने कभी पंचायती राज को मजबूत करने में दिल से दिलचस्पी नहीं दिखाई। शायद यही वजह रही कि यहां पंचायती राज की जड़ें बाकी राज्यों की तुलना में नहीं फैल पाईं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में न सिर्फ पंच, सरपंच बल्कि बीडीसी, डीडीसी की संस्थाओं को वजूद मिलने से जम्मू कश्मीर के लोकतंत्र को नई ऊर्जा मिली है। या यूं कहें कि जमीनी स्तर तक लोकतंत्र की पहुंच बढ़ी है।
केवल दो विकल्पों वाला समीकरण इस बार गड़बड़ाया
इस बार चुनावी मैदान में ताल ठोकने वाले नए चेहरों में बीडीसी और डीडीसी भी शामिल हैं जिनकी सभाओं में लोगों की संख्या और जोश ने पुराने दिग्गजों की नींद उड़ाए रखी। शायद इसी वजह से बहुत सी सीटों पर बाइनरी (केवल दो विकल्पों की स्थिति) का समीकरण गड़बड़ा गया है। यानी मुकाबला दो से अधिक प्रत्याशियों के बीच नजर आ रहा है।

कई विधायकों को इस बार लगेंगे झटके
जो प्रत्याशी पहले मंत्री या विधायक रहे और जम्मू कश्मीर के सियासी माहौल की उथल-पुथल के बीच खुद को जनता से जोड़े रखने में नाकाम रहे उन्हें इस बार निश्चित तौर पर कई झटके लगे हैं या लगने वाले हैं। वहीं पंचायत स्तर की राजनीति से निकलकर आए कई नए चेहरे इस बार विधानसभा चुनावों को बड़े स्तर पर प्रभावित कर सकते हैं। कहीं वो जीतने की स्थिति में नजर आ रहे हैं तो कहीं किसी दिग्गज की हार की वजह बनते नजर आ रहे हैं।
सियासी लैंडस्केप बदलने से प्रदेश को लीडरशिप की नई पौध मिलेगी
हार-जीत के बरक्स यह सबसे महत्वपूर्ण लग रहा है कि जम्मू कश्मीर का सियासी लैंडस्केप इन चुनावों से पूरी तरह बदलने वाला है। चुनावों के लिए लंबे इंतजार ने प्रदेश को लीडरशिप की नई पौध दे दी है जो आने वाले वक्त में यहां की राजनीतिक शून्य को भरने का काम करेगी।









उत्तर और उत्तर-पूर्व के छोटे-छोटे राज्यों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है.इन राज्यों के बारे में बहुत ही कम खबरें देखने को मिलती हैं.
जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव का विधानसभा वार चुनावी स्थिति पर रिपोर्ट अपेक्षित है.