जम्मू और कश्मीर एक-दूसरे से बिल्कुल अलग खित्तों में बंटा हुआ है। यहां अलग संस्कृतियां, बसावट में अलग-अलग मजहब और बोलचाल में अलग भाषा-बोली इस प्रदेश को देश के अन्य राज्यों से विशिष्ट बनाता है। जम्मू के मुद्दे कश्मीर से नहीं मिलते और कश्मीर की अवाम के मसले जम्मू से मेल नहीं खाते। पीर पंजाल पर्वत शृंखला के दोनों तरफ सिर्फ एक ही समानता है और वो है भारतीय नागरिकता, लेकिन जब बात शिनाख्त की हो तो कश्मीर का मुखर नैरेटिव अलगाववाद, सॉफ्ट अलगाववाद या फिर कश्मीरियों की पहचान पर खतरे को इंगित करते हुए अपनी बात करता है।
वहीं मध्य हिमालय के इस तरफ की दुनिया भारतीय मुख्यधारा के ज्यादा करीब है। ऐसे में एक तरफ बिजली, पानी, सड़क और गैर बराबरी मुद्दे रहे हैं तो दूसरी तरफ खुदमुख्तारी, स्वायत्तता और सेल्फ रूल के मुद्दे ही सियासी पारे का उतार-चढ़ाव तय करते हैं। हालांकि अनुच्छेद 370 और 35-ए हटने और जम्मू कश्मीर का पुनर्गठन होने के बाद कश्मीर केंद्रित सियासी जमातों के बुनियादी मुद्दों के तेवर पहले के मुकाबले उतर गए हैं।
सियासत को मजबह से अलग करके देखने से सियासी नब्ज को पकड़ना थोड़ा मुश्किल
केंद्र शासित प्रदेश बनने से पहले जम्मू कश्मीर देश का इकलौता मुस्लिम बहुल राज्य था जो अब लक्षद्वीप के बाद फीसदी के लिहाज से दूसरा सबसे मुस्लिम बहुल प्रदेश है। केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद लद्दाख भी मुस्लिम बहुल प्रदेश बन गया है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द जुड़ने के बाद से सियासत को संवैधािनक तौर पर धर्म से अलग किया गया है, लेकिन जमीनी हकीकत में ऐसा व्यवहार में नहीं उतर पाया है। इसी वजह से जम्मू कश्मीर की सियासत को मजबह से अलग करके देखने से सियासी नब्ज को पकड़ना थोड़ा मुश्किल है।
अब तक मुस्लिम चेहरा ही सीएम की कुर्सी पर काबिज रहा
यहां अल्पसंख्यक हिंदू समाज से मुख्यमंत्री बनाए जाने के नारे को हिंदू बहुल इलाकों में तवज्जो मिलती है। यहां ये दीगर है कि मुस्लिम बहुल तत्कालीन रियासत में जस्टिस मेहर चंद महाजन को अक्तूबर 1947 में पहला प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया था, जिन्होंने जम्मू कश्मीर के भारत में विलय कराने में अहम भूमिका निभाई। 1964 तक रियासत ने पांच प्रधानमंत्री देखे, लेकिन 1964 में संविधान संशोधन से जम्मू कश्मीर के अंतिम प्रधानमंत्री गुलाम मोहम्मद सादिक को यहां का पहला मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया। तब से लेकर प्रदेश में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर मुस्लिम चेहरा ही काबिज रहा है।
मरकजी सरकार से तालमेल के मामले में नाजुक रहा है यह प्रदेश
वहीं दूसरी तरफ हिंदुस्तान के हवाले से हिंदू राष्ट्र जैसे नारे और तकरीरें जम्मू कश्मीर की सियासत में ध्रुवीकरण का काम करती हैं। इस ध्रुवीकरण का फायदा हिंदू और मुस्लिम बहुल इलाकों में सियासी तासीर से मेल खाने वाली हर पार्टी को मिलता है।
इस लिहाज से देखें तो जम्मू कश्मीर की खित्तेवार आकांक्षाओं में किसी न किसी रूप में मजहबी तासुर भी नजर आता है। मजहबी सियासत से इतर यह प्रदेश मरकजी सरकार से तालमेल के मामले में भी नाजुक रहा है।
2008 में आतंकवाद का ग्राफ गिरकर 10 प्रतिशत पर आया
गठबंधन सरकार के फार्मूले की शुरुआती असफलता आगे चलकर सफलता में तब्दील होने लगी। वर्ष 2002 में पीडीपी, कांग्रेस और पैंथर्स पार्टी की गठबंधन सरकार को अपना कार्यकाल पूरा न करने के बावजूद एक कामयाब सरकार के तौर पर देखा जाता है। यह पहला मौका था जब सरकार में दो से ज्यादा दलों के नेताओं को मंत्रिमंडल में नुमाइंदगी मिली। मुफ्ती सरकार ने जब कार्यभार संभाला तो उस समय आतंकवाद चरम पर था। इसी सरकार के वजूद में आने के बाद आतंकवाद से होने वाली मौतों का ग्राफ तेजी से नीचे आया। साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल के अनुसार, साल 2001 में आतंकवाद से जुड़ी हत्याओं की घटनाओं का आंकड़ा 2084 था जो 2002 में 1642 और सरकार गिरने के वर्ष 2008 में 261 रह गया। हालात में बेहतरी के अलावा युवाओं को रहबर व्यवस्था में नौकरियां देने के लिए भी पीडीपी-कांग्रेस की गठबंधन सरकार को याद किया जाता है।
अमरनाथ भूमि मामले में गिरी थी गुलाम नबी की सरकार
2008 में अमरनाथ भूमि मामले को लेकर कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद की सरकार गिरने के बाद नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस की सरकार बनी जो अपना 6 वर्ष का कार्यकाल पूरा करने वाली पहली गठबंधन सरकार रही। इसके बाद पीडीपी-भाजपा की गठबंधन सरकार बनी जो भाजपा की ओर से समर्थन वापस लिए जाने पर कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। इस पूरे क्रम को देखकर कहा जा सकता है कि गठबंधन सरकारों को हालांकि उथल-पुथल के दौर से गुजरना पड़ा, लेकिन लोगों की आकांक्षाओं के लिहाज से जमीनी स्तर पर यही फार्मूला सबसे बेहतर साबित हुआ है।
2014 के चुनाव परिणाम ने गठबंधन सरकार की अपरिहार्यता को बढ़ाया
गठबंधन सरकारों के इतिहास में 2014 के चुनाव और भी महत्वपूर्ण रहे जिसमें भाजपा ने जम्मू संभाग की 37 में से 25 सीटें जीतकर जम्मू कश्मीर में गठबंधन सरकार की अपरिहार्यता को आगे बढ़ाया। अब फिर से खंडित जनादेश आया है। यह दर्शाता है कि जम्मू कश्मीर की सियासी तस्वीर में बहुमत वाली सरकार बहुत मुश्किल है। विविधताओं और पेचीदगियों के बीच राजनीतिक पार्टियों का व्यवहारिक लक्ष्य बहुमत न होकर सबसे बड़ी पार्टी हो गया है। ऐसे में मिलीजुली सरकार ही अब जम्मू कश्मीर की सियासी तकदीर मालूम पड़ती है।
