हमारा देश भी अजब-गजब है। नहीं भाई, ऐसा नहीं बोलते। देश नहीं यहां निवास करने वाले अजग-गजब के हैं। हम अजब-गजब के हैं। तभी तो कह देते हैं कि इससे तो बेहतर दूसरे मुल्क हैं। यहां स्वतंत्रता और कानून नाम की चीज नहीं। साफ-सफाई भी नहीं। स्वतंत्रता और साफ-सफाई का नाम लेते ही बापू याद आ जाते हैं। बापू मतलब वही मोहनदास करमचंद गांधी। सीधा कहिए तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी। गांधी जी ने स्वतंत्र भारत में जिस स्वच्छता की परिकल्पना की थी वह तो आज तक साकार नहीं हो पाई। हां, कुछ कोशिश जरूर हो रही है। हालांकि कई लोग खासकर आज की युवा पीढ़ी के उद्दंड सारथी ऐसे हैं जिनकी करनी यह सोचने को मजबूर कर देती है कि क्या वाकई बापू की वजह से ही अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा। लेकिन एक चिकित्सक ने दशहरा में मां दुर्गा की प्रतिमा विसर्जन के दौरान जो अनुभव किया उससे लगता है कि गांधी जी को यह भ्रम था कि अंग्रेज उनके कारण ही देश छोड़कर चले गए। पढ़िए चिकित्सक ने क्या महसूस किया …
आज (13 अक्टूबर 2024) मेरे शहर (बेगूसराय) में मां दुर्गा की प्रतिमा का विसर्जन है। हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी सैकड़ों मूर्तियों का विसर्जन स्थानीय ताल-सरोवर-नदियों में किया गया। चूंकि विसर्जन पूरे धूमधाम से होता है, सड़कों पर लटक रहे बिजली के तार के संपर्क में आने से दुर्घटना घट सकती है, अतः शाम से ही पूरे शहर की बिजली गुल है।
मेरा अस्पताल शहर के हृदय में स्थित एक सरोवर के किनारे है। आज शाम 7 बजे के करीब काम खत्म कर मैं पत्नी के साथ घर की ओर प्रस्थान करने के लिए अस्पताल से निकला। पूरा सरोवर और पास की सड़क स्वच्छ, साफ और मनमोहक थी। पूरे वर्ष गंदगी से आच्छादित दुर्गंध मारने वाला सरोवर बेहद सुंदर और जीवंत था। मन खुश हो गया। चूंकि सरोवर के पास की सड़क को प्रशासन ने सील कर दिया था, अतः मुझे अपनी गाड़ी पार्किंग में ही छोड़नी पड़ी। घर पास में ही 400-500 मीटर की दूरी पर है, सो हम पैदल ही निकल पड़े। कितना अच्छा होता अगर यह सरोवर पूरे साल शीतल, स्वच्छ और रमणीक होता! लोग आसपास के पेवमेंट और सीढ़ियों पर सुबह की सैर करते! पानी इतना स्वच्छ होता कि बच्चे खूब तैरते! तैराकी की प्रतियोगिता होती! शाम में लोग इसके किनारे बैठ दिनभर की थकान मिटाते! कुछ जोड़ियां भी बनतीं!
सोचते-सोचते पत्नी संग पैदल ही घर के करीब पहुंच गया। मुख्य सड़क से अपने मोहल्ले की सड़क की ओर जैसे ही मुड़ा 18 वर्ष का एक किशोर लगभग एक तिहाई सड़क पर दीवार की ओर मुंह किए पूरी मस्ती में मूत्रविसर्जन कर रहा था। मैंने जाते-जाते उसे टोका कि मुख्य सड़क पर लगभग 20 मीटर पर यूरिनल बना है, वहां क्यों नहीं करते? इस पर उस उद्दंड किशोर ने जवाब दिया कि कहां लिखा है यहां पेशाब करना मना है? मन क्रोधित हुआ, लेकिन संभलते हुए उससे कहा- ‘‘तुम्हारे मुंह में भी नहीं लिखा है, तो…’’। किशोर मुझसे जुबान लड़ा रहा था। तभी मोहल्ले के दो युवकों ने उस किशोर की उद्दंडता और ढीठपन पर एतराज किया। कहा- कितनी मेहनत से पूरे मोहल्लेवासियों ने मुख्य सड़क पर यूरिनल का निर्माण कराया कि मोहल्ला साफ रहे। वरना लाेग, मोहल्ले की मुख्य सड़क के बीचोंबीच खड़े होकर पेशाब करते थे और मूत्र की धारा बीच सड़क नदी का स्वरूप लेकर कलकल प्रवाहित होती थी! मोहल्ले की औरतें अपना मुंह दूसरी ओर कर, नाक बंद कर किसी तरह निकल जाया करती थीं। अथक संघर्ष के बाद हमें मुक्ति मिली, लेकिन हमारे बिहार में 15 से 30 वर्ष के ऐसे मनचले युवक हैं कि किसी को कुछ नहीं समझते, मरने-मारने पर भी उतारू हो जाते हैं।
सच है, भारत जैसा स्वतंत्र देश पूरे विश्व में कहीं नहीं है। जहां मर्जी हो चालू हो जाओ। इस तरह मेरे मन-मस्तिष्क से स्वच्छता का भूत पत्नी की एक ही झिड़की में उतर गया। अगली बार से सड़क किनारे मल-मूत्र विसर्जित करने वाले महान आत्माओं का हृदय से अभिनंदन करता जाऊंगा कि गांधी जी को भ्रम था कि आजादी उन्होंने दिलवायी? कि आपकी ही वजह से अंग्रेज भारत छोड़ भाग गए, आपने ही भारत को आजादी दिलायी, आज आपसे ही भारत स्वतंत्र और स्वच्छ है। कहां है संविधान खतरे में? झुट्ठे हल्ला करता है सब। आप भी मत रुकिये, यत्र-सर्वत्र खूब थूकिए। अंदर से जैसे आए पुकार, रुकिए मत, कहीं भी मारिये धार। सबको आदर और सम्मान। स्वीकार कीजिये बंधुओं मेरा हार्दिक प्रणाम।

2 thoughts on “आप भी भ्रम दूर कर लीजिए, देश को आजादी गांधी के कारण नहीं बल्कि इनके कारण मिली!”
विषयवस्तु/तथ्य का चयन बढ़िया.व्यंग के शिल्प में और तराश की अपेक्षा.पत्नी की उलाहना को केंद्रीय बिन्दु बना कर और गॉंधी जी को और हिसाब से उद्धृत करते तो रचना और मजेदार होती.
इसे पढ़ते हुए किसी भी संवेदनशील पाठक के समक्ष ये द्वंद्व खड़ा हो जाएगा कि हँसे या रोए .. ।
लेखन की शैली ऐसी कि बेसाख्ता हँसी छूट पड़े..खास कर क्लाइमेक्स के नारे को पढ़ते हुए । अभिव्यक्ति में समाहित पीड़ा ऐसी कि आँखें डबडबा जाए ।
शल्य क्रिया के यंत्रों, तन-भंग रोगियों और उसके खिच – खिच करते परिजनों से रोज जूझता हुआ एक चिकित्सक, अपने लिए संवेदनाओं का नैतिक स्वर न केवल सहेज पाता है बल्कि उसे उत्कृष्टता व तीक्ष्णता के साथ व्यक्त भी कर पाता है, ये काफी महत्वपूर्ण बात है । डॉक्टर निशांत से जनपद का साहित्य जगत भी समृद्ध हो सकता है इसकी प्रचुर संभावना भी यहां दृष्टिगत हुई।
आपका संपादन भी लाजवाब .. शीर्षक ऐसा कि कोई भी पढ़ने को विवश हो जाए..।