हबीब का अर्थ होता है प्रेमी, सखा, दोस्त, प्रेमपात्र, माशूक़। हबीब साहब वैसे ही रंगमंच के हबीब थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ से ही स्थानीय कलाकारों को लेकर उन्हीं की भाषा, संगीत और परिवेश को रचकर काम किया। बिना साधनों के अकेले हबीब तनवीर ने एक निर्देशक और रंगकर्मी के रूप में जो महत्वपूर्ण काम किया था, वह बेजोड़ है। उनका नाटक ‘चरनदास चोर’ हो या ‘गांव वा नांव ससुराल’ ‘मोर नांव दामाद’, उन्होंने हिंदी रंगमंच को आंचलिकता से जोड़ कर नई गरिमा प्रदान की। उन्होंने नाटकों का इस्तेमाल सामाजिक बदलाव के लिए एक हथियार के रूप में किया।
… और हबीब साहब ने यकायक कैमरा पर छड़ी जड़ दी
मैने उन्हें पहली बार बेगूसराय के गोदरगावां में देखा था। मंच खेत में बनाए गए थे और हबीब साहब हाथ में छड़ी और सिगार लिए मंच के बीचो-बीच कुर्सी पर दर्शकों की ओर पीठ करके बैठे थे। उनके कलाकार नाटक राजरक्त का पूर्वाभ्यास कर रहे थे और हबीब साहब बीच-बीच में समझा रहे थे। पूरा पांडाल दर्शकों से खचाखच भर चुका था। पिन ड्राॅप साइलेंट था। हबीब साहब मंच से उतरे और लाइट एडजस्ट कर रहे व्यक्ति के बगल वाले कैमरामैन पर एक छड़ी जड़ दी। लोग हतप्रभ थे कि अचानक क्या हुआ कि उनकी छड़ी चल गई। खैर, इस बावत किसी ने भी शो खत्म होने के बाद उनसे नहीं पूछा और न मैंने ही उनसे अनौपचारिक बातचीत में पूछने की हिमाकत की। हालांकि राजरक्त के पूर्व हबीब साहब का नाटक श्रीराम सेंटर दिल्ली की प्रस्तुति जिन लाहौर नई देख्या का मंचन स्थानीय दिनकर भवन में देख चुका था। यथार्थवादी शैली का यह नाटक बेहतरीन था। साम्प्रदायिकता पर करारा चोट। चुनांचे अब तो साम्प्रदायिकता से बातें बहुत आगे बढ़ गई हैं। खैर, अब उनके कुछ नाटकों पर बात कर ली जाएं।
पहला बड़ा नाटक ‘आगरा बाजार’ 1954 में लेकर आए
नजीर अकबराबादी आवाम के शायर थे। उनकी जीवनी पर आधारित नाटक ‘आगरा बाजार’ नाटक की किताब में चर्चा है कि ककड़ी वालों से लेकर लड्डू बेचने वालों तक, फूल वालों से लेकर तरबूज वालों तक लोकल लोग थे, जो रिहर्सल देखने आ जाया करते थे। हबीब तनवीर अपना पहला बड़ा नाटक ‘आगरा बाजार’ 1954 में लेकर आए। बाद में वो एक बर्तोल्त ब्रेष्ट के रंग सिद्धांत से प्रभावित लोकधर्मी नाटककार व रंगनिर्देशक के रूप में स्थापित हुए। हबीब साहब के आगरा बाजार में नजीर अकबराबादी की ‘आगरे के ककड़ी’ वाली ये नज्म देखें तो स्पष्ट होता है कि गीत और गायकी पर उनकी कितनी पकड़ थी।
क्या प्यारी-प्यारी मीठी और पतली पतलियां हैं।
गन्ने की पोरियां हैं, रेशम की तकलियां हैं।
पाश्चात्य नाट्य विधा को भारतीय लोक कला के साथ समावेशित किया
1955 में हबीब साहब रंगकर्म के प्रशिक्षण के लिए लन्दन चले गए। रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट और फिर ‘ओल्ड विक थिएटर स्कूल’ में प्रशिक्षण लिया। इसके बाद उन्होंने एक और साल यूरोप में यायावरी में बिताया और खूब नाटक देखे। इस भटकन से उन्हें ये सबक मिला कि अपनी भाषा और अपने परिवेश के साथ ही कुछ नया बुना जा सकता है। जब वो भारत लौटे तो उन्होंने अपनी जन्मस्थली छत्तीसगढ़ की नाचा लोक कला शैली को अपने नाटकों में आजमाना शुरू किया। हबीब तनवीर पाश्चात्य नाट्य विधा के अंधे अनुसरण के प्रखर विरोधी रहे पर इसी पाश्चात्य नाट्य विधा को भारतीय लोक कला के साथ समावेशी करने के प्रबल समर्थक भी रहे। कहा यह जाता है कि हबीब साहब ब्रेष्ट से मिलने यूरोप गये थे, लेकिन वो मिल नहीं पाए , लेकिन वहां उन्होंने ब्रेष्ट के काम को नजदीक से देखा और समझा।
कहानी में नदी सरीखा बहाव होना चाहिए
बतौर रंगकर्मी मोहन जोशी, हबीब साहब की बेटी व रंगकर्मी नगीन कहती हैं “ बाबा ने हमेशा अपने गुरुओं से यही सीखा था कि कहानी में बहाव होना चाहिए जैसे कि एक नदी में होता है, इसलिए कला में सेलेक्टिव होना जरूरी है।” नाचा के साथ उनके प्रयोगों की प्रक्रिया सतत जारी रही और उन्होंने देश दुनिया के बड़े नाटककारों को भी छत्तीसगढ़ी बोली-बाणी में पिरो कर यूं पेश किया, मानो वो नाटक यहीं के हों। उन्होंने संस्कृत नाटक मृच्छकटिकम को मिट्टी की गाड़ी के नाम से किया तो वहीं विजय दान देथा की कहानी पर आधारित चरणदास चोर भी किया।
नया थियेटर के सबसे चर्चित नाटकों में चरनदास चोर गिना जाता है। ये सत्यवादी चोर की कहानी है, जो अपने गुरु को वचन दे देता है कि वो कभी झूठ नहीं बोलेगा। इसका नाट्य रूपांतर खुद हबीब साहब ने किया था। उन्होंने इस नाटक का अंत दुखांत रखा। विजयदान देथा नाटक के अंत से संतुष्ट नहीं थे। हबीब साहब के इस नाटक का पटाक्षेप चोर की हत्या से होता है। हंसते-हंसते अंत में अचानक दर्शकों को रुला देने वाले इस नाटक का असर लोगों पर बहुत गहरा पड़ा। नाटक खत्म होने के बाद भी दर्शक बैठे रहे कि शायद चोर उठ खड़ा हो! इस नाटक ने ना केवल हिंदुस्तान में बल्कि विदेशों में भी खूब तालियां बटोरीं। 1982 में इसे प्रतिष्ठित एडिनबरा फ्रिंज नाट्य उत्सव में प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बाद में इस नाटक पर श्याम बेनेगल ने एक फिल्म भी बनाई।
हबीब साहब की नाट्ययात्रा में एक कबीर सी फकीरी
हबीब साहब की नाट्ययात्रा में एक कबीर सी फकीरी देखने को मिलती थी, जो हर वर्ग तक टहल आती थी। उनके नाटकों की सार्वभौमिकता यूं थी कि वे छत्तीसगढ़ के अंचल में भी लोकप्रिय थे और बेगूसराय जैसे छोटे शहर से लेकर दिल्ली तक स्थापित थे। उन्होंने संस्कृत नाटकों से लेकर शेक्सपियर और ब्रेख्त से लेकर लोक कथाओं तक को अपनी शैली में अपनाया और आजमाया। उनके नाटकों में एक देशज आधुनिकता थी और ठेठ गंवईपन के साथ एक जादुई सहजता भी।
100 से अधिक नाटकों का मंचन व सर्जन
50 वर्षों की लंबी रंग यात्रा में हबीब जी ने 100 से अधिक नाटकों का मंचन व सर्जन किया। उनका कला जीवन बहुआयामी था। वे जितने अच्छे अभिनेता, निर्देशक व नाट्य लेखक थे उतने ही श्रेष्ठ गीतकार, कवि, गायक व संगीतकार भी थे। हबीब तनवीर हिन्दुस्तानी रंगमंच के शलाका पुरुष थे। उन्होंने लोकधर्मी रंगकर्म को पूरी दुनिया में प्रतिष्ठित किया और भारतीय रंगमंच को एक नया मुहावरा दिया। उनके पिता हफ़ीज अहमद खान पेशावर (पाकिस्तान) के रहने वाले थे। स्कूली शिक्षा रायपुर और बी.ए. नागपुर के मौरिस कॉलेज से करने के बाद वे एम.ए. करने अलीगढ़ गए। युवा अवस्था में ही कविता लिखने लगे थे। उसी दौरान उपनाम ‘तनवीर’ उनके साथ जुड़ा। 1945 में वे मुंबई गए और ऑल इंडिया रेडियो से बतौर निर्माता जुड़ गए। उसी दौरान उन्होंने कुछ फ़िल्मों में गीत लिखने के साथ अभिनय भी किया।
राजीव गांधी ने बाल अभिनेता के रूप में काम किया
ब्रिटिशकाल में जब इप्टा से जुड़े तब अधिकांश वरिष्ठ रंगकर्मी जेल में थे। उनसे इस संस्थान को संभालने के लिए कहा गया था। 1954 में उन्होंने दिल्ली का रुख़ किया और वहां कुदेसिया जैदी के हिंदुस्तान थिएटर के साथ काम किया। इसी दौरान उन्होंने बच्चों के लिए भी कुछ नाटक किए जिसमें एक नाटक गधे में राजीव गांधी ने भी बाल अभिनेता के रूप में काम किया था। दिल्ली में तनवीर की मुलाकात अभिनेत्री मोनिका मिश्रा से हुई जो बाद में उनकी जीवनसंगिनी बनीं। यहीं उन्होंने अपना पहला महत्त्वपूर्ण नाटक ‘आगरा बाज़ार’ किया।
एक नजर उनके व्यक्तिगत जीवन पर –
हबीब तनवीर का जन्म 1 सितंबर, 1923 को रायपुर, छत्तीसगढ़ में हुआ था और मृत्यु 8 जून, 2009 को भोपाल, मध्य प्रदेश में हुई। वे पटकथा लेखक, नाट्य निर्देशक, कवि और अभिनेता थे। उनकी मुख्य रचनाएं ‘आगरा बाज़ार’, ‘मिट्टी की गाड़ी’, ( शुद्रक रचित संस्कृत नाटक मृच्छकटिक’) चरणदास चोर’, ‘शतरंज के मोहरे’, राजरक्त, पोंगा पंडित आदि हैं। पोंगा पंडित को तो डिस्टर्ब भी किया गया। उनकी मुख्य फिल्में ‘गाँधी’ (1982), ‘द राइज़िंग: मंगल पांडे’, ‘ब्लैक & व्हाइट’ (2008) प्रहार आदि थी। हबीब तनवीर को पुरस्कार-उपाधि के रूप में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, पद्मश्री, पद्म भूषण मिला।
हबीब साहब के कामों को जीना और करना अब आसान नहीं रहा और हबीब बनना भी आसान नहीं। हबीब साहब को उनकी पुण्य तिथि पर सलाम।
